Friday, August 9, 2019

द्रौपदी की नियति


मूल ः विजय चालिसे
अनु ः गोपाल अश्क

(भारत–नेपाल कथा संगम (२०१९), सम्पादकः डा. राजेन्द्र परदेशी, डा. भाष्कर शर्मा र रामकुमार पण्डित, परिन्दे प्रकाशन दिल्ली मा सङ्ग्रीहीत हिन्दीमा अनुदित मेरो कथा । प्रकाशक, सम्पादक विशेषतः साहित्यकार भाइ रामकुमार पण्डित सहित अनुवादक साहित्यकार मित्र गोपाल अश्क सबैला धन्यवाद ! )

आज याङ्जेन अपने दूसरे पति का स्वागत करने के लिये अपने को मानसिक रूप से तैयार करने की कोशिश मेंं लगी हुई है । उसका शरीर तो पति की चाहत पूरा करने के लिये हर वक्त किसी निर्जीव वस्तु की तरह अपने आप को तैयार कर सकता है । लेकिन उसका मन और उसके मन के अंदर का स्त्री का स्वाभिमान इस बहु पति भोग की स्थिति को कैसे सह पायेगा ? वह इस भावना से खुद को कैसे अलग कर पायेगा कि वह इस देह व्यापार करने वाली स्त्री से अलग है । याङ्जेन इसी मानसिक द्वंद्व में पड़ी हुई है ।

वह इच्छा और खुशी से नहीं बल्कि परंपरागत प्रचलन और आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति का शिकार होकर अपने पहले पति को नमक ढोने के लिये भेजकर दूसरे पति की बाँहों मेें भर जाने के लिये विवश हुई है । एक तरह से युद्ध की मानसिक पीड़ा भोग रही है । उसे याद आता है–अभी तो छ महीने ही हुये हैं उसकी शादी के । छ महीने  पहले ही तो उसकी शादी उसके पहले पति के साथ ‘देमछयाङ्’ विधि संपन्न होने के बाद हुई थी  और वह इस घर में आई थी । उसने देमछयाङ् के पहले और तिछयाङ् के बाद अपने उसी पहले पति पेमा को अपना सबकुछ मानकर अपने आपको समर्पित किया था । शादी की मूल विधि के पहले ही उसने अपने आपको एक पत्नी के रूप में समर्पित किया था । एक आम औरत की तरह उसने भी पेमा के अतिरिक्त किसी दूसरे पुरुष की कल्पना नहीं की थी । एक हिसाब से उसने अपने समाज का वह प्रचलन भी भुला दिया था । वह याद करना भी नहीं चाहती थी ।

अब वह याद करे या न करे ।  या फिर  भूल ही क्यों न जाय ।  मगर वहाँ एक समाज था, एक परंपरा थी । और उस समाजिक परंपरा को मानना उसकी मजबूरी थी । कहने का मतलब यह है कि वह देमछयाङ् बिधि संपन्न करके पेमा की पत्नी के रूप में उसके घर में आने के बाद वह केवल पेमा की ही पत्नी नहीं थी, बल्कि उसके अन्य तीन भाईयों की भी पत्नी हो गई थी । वह उन लोगों की भी बतौर सामाजिक मान्यता प्राप्त पत्नी हो गई थी । उसके ऊपर न केवल पेमा का बल्कि और तीन पतियों का मालिकाना हक कायम हो चुका था । उसकी नारीत्व का चार भागों में बँटवारा हो चुका था । शरीर को अलग–अलग हिस्सों में सौंपना शायद कठिन न हो, लेकिन उसके अंदर जो सनातन नारी हृदय था, उसका क्या करे ? उसे वह कैसे अलग–अलग हिस्सों में बाँट दे ? अब हृदय शरीर तो है नहीं कि उसे अपनी सुविधा के मुताबिक उलटा–पलटा दिया जाय या रौंद दिया जाय । लेकिन यह स्थिति और मानसिकता आज याङ्जेन के सामने आ खड़ी थीं । उसके चाहने या न चाहने से क्या होता है ? अपने पति पेमा, को बिदा करके उसके मझले भाई को पति के रूप में स्वीकार करना था और उसकी इच्छा की वेदी पर अपनी देह सौंपनी थी । उसे अपने आपको उसके मन के मुताबिक ढालना था । कहने का मतलब यह है कि आज से उसपर दूसरे पति का अधिकार था, हक था । और उसी हक और अधिकार के चलते वह एक याम के लिये उसका उपभोग्य सामग्री बन गई थी । आखिर क्या अंतर है उसमें और उसके पति के द्वारा ऊन देकर लाये हुये नमक के अस्तित्व में ? नमक एक वस्तु है जिसे हर कोई प्रयोग कर सकता है । जैसे कि उसे पेमा के तीनों भाई अपनी इच्छा के अनुसार एक–एक याम के लिये उपभोग कर सकते हैं । कल जब उनका मन भर जाय तो वे अपनी पैतृक संपत्ति और उसे छोड़कर किसी और के साथ अलग हो सकते हैं । वह केवल उनकी पैतृक संपत्ति उपभोग करने वाली एक शर्त ही तो है ।
उस दिन वह यह तय नहीं कर पा रही थी कि वह खुशी हो या दुःखी । उस दिन उसका तिछ्याङ् (सगुन) आ रहा था । उसके गाँव के बगल वाले गाँव जोरखोल्सी से उसकी शादी का सगुन आ रहा था । अर्थात् पेमा फुंजो के पिता याङ्जेन को बहू बनाने के लिये विधि अनुसार ‘वा’ (सगुन) ला रहे थे । जिस हाँड़ी पर  वह ‘वा’ रखा हुआ था उसे याङ्जेन के पिता अस्वीकार कर ही नहीं सकते थे । क्योंकि इसके पहले वे इस बात के लिये राजी हो चुके थे । उनके सहमत होने के बाद ही यह विधि संपन्न की जा रही थी । याङ्जेन के पिता ने उस हाँड़ी की शराब पीते ही पेमा फुंजो के साथ उसकी शादी तय हो गई । ‘तिछ्याङ’ की विधि इस कुछ इस तरह से पूरी हुई थी ।
–‘क्या सोच रही हो याङ्जेन ?’ अभी से पेमा को याद करके हमे भूल गई क्या ? क्या सोचती हो ? तुम तो केवल एक पेमा की ही नहीं, बल्कि एक ही बार में चार–चार पुरुषों की पत्नी हो गई ! खूशनसीब हो तुम ! छाङज्यू की आवाजा सुनते ही याङ्जेन अंदर से काँप गई ।
इसी बात से तो वह गली जा रही थी । उसे यही चिंता खाई जा रही थी कि आखिर वह किस तरह चार–चार पतियों को बहला पाएगी ? उसने बचपन में पाँच पांडव की कहानी सुन रखी थी । उस कहानी में उसने सुना था कि द्रौपदी के पाँच पति थे । उस वक्त उसे सोचा भी था कि द्रौपदी को पाँच पतियों के बीच में रहते हुए कैसा लगता होगा ? बच्ची ही तो थी वह । खुश भी होती थी सोचकर । उसे लगा था कि पाँच–पाँच पतियोंं का प्यार पाना कोई कम खुशी की बात नहीं है । खुशनसीबी है यह । आज पाँच तो नहीं लेकिन चार–चार पतियों की एक साझा पत्नी की हैसीयत में खड़ी हो गई है । दो तो छोटे ही हैं, उसने सुना था । एक दस साल का है और दूसरा बारह साल का है 
। अभी उन्हें जवान होने में दो–चार साल लगेंगे । लेकिन दूसरा पति तो एकदम गबरू जवान है, पेमा की तरह ।

याङ्जेन को बहुत बुरा लगा था – यह किस तरह की परंपरा का शिकार होना पड़ा है मुझे और मेरे समाज की लड़कियोंं को । ऐसा लगता है कि जानवरों का समाज है यह ! अब क्या सोचना है छाङ्ज्यू ! यह केवल हमारा ही चलन नहीं है । केवल मेरी ही जिन्दगी में विपत्ति नहीं आई है ? आज मैं शिकार हुई हूँ, कल तुम सभी लोगों को इस चलन का शिकार होना पड़ेगा । यह नियति भोगनी पड़ेगी ।’ याङ्जेन ने अपने बचपन की सहेली छाङ्ज्यू से अपनी पीड़ा व्यक्त की ।

–‘ देखो ! मैं नहीं मानती हूँ ऐसी परंपरा ! ऐसी भी कहीं परंपरा होती है ? कि एक लड़की किसी एक घर के सारे मर्दों की पत्नी बने ! इससे तो अच्छा कि मैं मंदिर चली जाऊँ, भिक्षुणी बन जाऊँ ! सुनती हो,मैं तो बहुतों की पत्नी नहीं बनूँगी ।’ छाङ्ज्यू याङ्जेन की तरह नहीं है । थोड़ी विद्रोही स्वभाव की है । जो उसे पसंद नहीं होता, उसके लिये वह लड़–भीड़ जाती है । गाँव के स्कूल में साथ–साथ पढ़ने–रहने के बावजूद उनके स्वभाव नहींं मिलते । एक लजवंती झार की तरह है, जो किसी के देखने भर से शर्माकर अपने आप में सिमट जाती है । और दूसरी एकदम प्रतिवाद करनेवाली, किसी का दबाव नहीं सहने वाली और विद्रोह करने वाली , रणचंडी की तरह ।

‘काश ! मैं भी छाङ्ज्यू की तरह विद्रोह कर पाती ! लेकिन सभी कहाँ विद्रोह कर पाते हैं ! वह मन ही मन सोचती जा रही थी । शायद इसी स्वभाव के कारण उसने अपने पिता के निर्णय और सामाज की परंपरा के आगे अपने आप को समर्पित कर दिया था । शायद उसने एकांकी विद्रोह को आत्मघात माना था । बीतते समय के साथ प्रारंभ में सपने से लगनेवाले दिन को भी कड़वा हकीकत मानकर गुजारना पड़ता है । लेकिन कभी–कभी अपने ही मन में सवाल पैदा हो जाता था , –‘ क्या यही है मेरे नारी जीवन की स्वाभाविकता ? क्या अलग रुचि, अलग स्वभाव और अलग प्रकृति के विविध पुरुषों को धारण करने से उत्पन्न होनेवाली जटिलताओं के प्रति हर वक्त त्रसित और शंकित होकर तलवार की धार की जैसी संतुलन बनाकर जीना ही मेरे जीवन की स्वाभाविकता है ? क्या यही है मेरे जीवन का सामान्य रूप ?’
–‘ माँ ! मेला देखने जाऊँ ?’ गोम्बा में आज मेला लगा हुआ है ।  है न ?’ उसकी पहली सिर्जना पाङ्जेन अनुमति मांगती है ।
–‘ अब जाना चाहते हो तो जाओ, मगर अंदर मत जाना । लोगों को अच्छा नहीं लगेगा ।’ बेचारा छोटा–सा बच्चा यह बात समझ नहीं पाता है कि अंदर जाने से लोगों को क्यों अच्छा नहीं लगेगा ? उसी सोच में उसने ‘आखिर क्यों’ सवाल भी न कर सका ।

याङ्जेन को अपनी अन्य संतानों से ज्यादा इस पाङ्जेन से ज्यादा लगाव है । उसके प्रति ज्यादा प्रेम है । चाहे जो कुछ भी हो, यह उसकी पहली सिर्जना है । और उसकी इस पहली सिर्जना से समाज या उसका परिवार अब चाहे जो समझे, कोई फर्क नहीं पड़ता । वह इसमें हीनता की कोई बात नहीं पाती । हाँ,उस वक्त उसने थोड़ी बुद्धिमता से काम नहीं ही लिया था ।
पिता के द्वारा तिछयाङ स्वीकार करने के बाद सामाजिक रूप से उसकी शादी पेमा फुंजो के साथ होने की पहली विधि पूरी हई । प्रचलन के अनुसार ही उसके होनेवाले पति पेमा को ससुराल आने–जाने का अधिकार प्राप्त हो गया । समाज ने उसे तिछयाङ विधि पूरी होते ही होनेवाली पत्नी के साथ सहवास के लिये रात गुजारने का अधिकार तो दे ही दिया था ।

पिघले हुए पीले सोने की तरह उसका गोरा रंग, सुडौल शरीर, लंबे बाल और सुंदर चेहरा ने याङ्जेन को अपनी तरफ आकर्षित किया ही था । वह भी उस सुंदर युवक के प्रति आकर्षित हो गई थी । वह भी काफी सुंदर युवक था । मूँछ हल्की–हल्की उगने लगी थी । और वे दोनों एक दूसरे की तरफ आकर्षित क्यों न हों ? आखिर वे एक दूसरे के होनेवाले जीवनसाथी थे । संसार द्वंद्वात्मक है, मैथुनजन्य है और इसके सारे पदार्थ स्त्री–पुरुष के रूप में विभाजित हैं । अर्थात् प्रकृति और पुरुष !  प्रकृति और पुरुष अर्थात् स्त्री और पुरुष की आकर्षण शक्ति ही संसार के अस्तित्व का मूल आधार है । और स्त्री पुरुष के बीच की अन्तर्निहित चुंबकिय शक्ति से आकर्षित होना अस्वाभाविक भी तो नहीं था । उस पर उन्हें सामाजिक मान्यता भी प्राप्त थी ।

पेमा के साथ शादी करते समय याङ्जेन के मन में अपने अन्य तीन पतियों से पत्नी का अधिकार मांगने की सोच भी नहीं पनपी थी । इतना ही नहीं, उस वक्त उसने यह भी नहीं सोचा था कि उसके आकर्षण और सहवास की परिणति ‘संतान’ को समाज में तुच्छ होकर जीना पड़ेगा और समाज की कुदृष्टि का शिकार होना पड़ेगा । उसने प्रेमिल मनस्थिति में पेमा के अनुरोध को इजाजत दी थी । उन लोगों ने ‘तिछयाङ्’ के बाद पूरी की जानेवाली शादी की मुख्य विधि ‘देमछयाङ’ को पूरा किये बिना समागम किया था जो उसकी इजाजत के बगैर नामुमकिन था । अगर ऐसा होता भी तो सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं होता ।

कभी–कभी तो जोर–जोर से चिल्लाकर इस समाज से पूछने का मन करता है,–‘ तिछयाङ् के बाद और शादी के पहले सहवास और शारीरिक संसर्ग करने की इजाजत देने वाला यह समाज उसी के परिणति के रूप में जन्मीं संतान को ऊँचा दर्जा क्यों नहीं दे सकता ? क्यों ‘थेम्बा’ कहकर तुच्छ समझता है ? इस समाज के पास उसकी ही दी गई इजाजत से जन्म लेनेवाली संतानो के साथ अन्याय करने का क्या अधिकार है ? मगर उसका मौन चीत्कारयुक्त प्रश्न मन में ही रह जाता है । वह अपने आप को उद्वेलित करने के अलावा कुछ नहीं कर पाती है । अपने इस प्रश्न को कोई अर्थ नहीं दे पाती है ।

बेचारा उस अबोध बालक को क्या पता कि उसकी माँ की शादी की विधियों में तिछ्याङ् के बाद पूरी की जानेवाली मुख्य विधि ‘देमछ्याङ’ पूरी होने से पहले ही वह जन्मा हुआ है और इसलिये वह समाज में दूसरे दर्जे का नागरिक है । यानि कि अवैधानिक संतान है । इसलिये वह समाज में तुच्छ समझा जाता है । अपनी माँ की अन्य संतानों की तुलना में भी तुच्छ ! ऐसी अवस्था में जब वह अबोध बालक छोटा–छोटा अबोध सवाल करता है तो उसकी माँ दर्द से भर जाती है । अन्दर ही अन्दर टूट जाती है । सोचती है,–इसमें इसका क्या दोष ? दोष तो मेरा है, इसके पिता का है । हम दोनों का जो हमने इसे समान मान्यता नहीं दिला सका । सच पूछिये तो यह हमारे समाज का दोष है !

उसे अच्छी तरह याद है–तिछ्याङ् के ठीक एक साल के बाद ‘थेम्बा’ के रूप में जन्मी उसकी पहली संतान के बाद ही उसकी ‘देमछ्याङ’ नामक विधि सम्पन्न हुई थी । ‘देमछ्याङ विधि मेंं उसके पिता के घर आनेवाले लोगों में दो लोग ‘याङजी’ और ‘बोकका’ आगे–आगे थे । याङ्जी और केकल कहलानेवाली शराब का मटका लिए हुए  उन दो लोगों के पीछे दो लोग बाजा बजाने वाले थे और उनके पीछे महिलाओं और पुरुषों की लंबी कतार थी । देमछ्याङ का स्वागत अर्थात् सुरछ्याङ करने के लिए याङ्जेन की माँ और कुछ अन्य काकी और दादियों को शराब की हाँड़ी लेकर कुछ दूर आगे तक आना पड़ा था । उन लोगों ने धूप बत्ती जलाकर अपने साथ लाये गये ‘छ्याङ’ नामक शराब की बूँदे बारातियों के ऊपर छरका था । उसके बाद वे शराब पीने का दावत देते हुए उन्हें घर ले गये थे । घर में लेजाकर स्वागत उनके गले में गमछा पहना देने के बाद ‘देमछ्याङ’ अर्थात् शादी की विधि संपन्न हुई थी । याङ्जेन उस वक्त घर के एक कोने से ये सबकुछ देख रही थी । और उसे अच्छा भी लग रहा था ।
–‘अरे सखी याङ्जेन ! तुमको तो लग रहा होगा कि कब यहाँ से चली जाऊ ! कहीं आज ही भाग जाने को सोच तो नहीं रही ! कहीं ऐसा तो नहीं कि आज ही भाग जाओगी ! उसकी सहेलियों ने उसे परेशान कर रखा था । उसके मायके में तीन दिनों तक नाच–गान होता रहा ।
–‘ क्या उत्पात मचा रखी हो तुम लोग । तुम लोगों की भी बारी आएगी । क्यों बेचैन हुई जाती हो ? याङ्छेन अपनी सहेलियों को डाँटा जरूर था लेकिन मन ही मन वह रोमांचित हो गई थी । पेमा को देखने की इच्छा तीव्र हो चली थी । ‘तिछ्याङ’ के बाद ससुराल में ही आकर लंबे समय तक सहवास सुख देने वाला उसका पेमा ‘थेम्बा’ के रूप में  पहली संतान के जन्म के बाद नहीं आया था । ‘देमछ्याङ’ में शादी करनेवाले लड़कों का आने का रिवाज नहीं था । भला वह भी क्यों आता !

‘देमछ्याङे’ की विधि संपन्न होने के बाद तीन दिनों तक भोज और नाच गान हुआ और उसके बाद दुलहन बिदा हो गई । याङ्जेन नया घर, नया परिवार और नया परिवेश में प्रवेश की । उसके अपने मायके का परिवार और परिवेश एकदम अलग था । उसके पिता के अन्य कोई भाई नहीं होने से उसकी माँ का एक ही पति था उसका पिता । कहने का मतलब यह है कि  याङ्जेन और उसके भाई का एक ही पिता था । परिचय के क्रम में उसने  जाना कि उसके मायके और ससुराल के परिवेश में काफी भिन्नताएँ हैं । दोनों परिवारों में कहीं कुछ नहीं मिलता । वैसे यह स्थिति उसके लिए अपरिचित नहीं थी । उसने अपने मायके में अन्य लोगों के घर–परिवार में इस तरह का वातावरण देखा था । संयोग ही कहना पड़ेगा कि उसने अपने घर–परिवार में ऐसा नजारा नहीं देखा । क्योंकि उसके बाप–दादाओं के एक ही पुत्र थे जिससे इस तरह का माहौल देखने को नहींं मिला । इधर उसका पति तो था ही । इसके अलावा उसकी सास के अन्य तीन लड़के और दो लड़कियाँ थीं । सास के पति अर्थात् उसके ससूर, वे भी दो थे । उसने परिचय के क्रम में यह भी जाना कि समाज के नियम और विधि के अनुसार सास–ससूर के अन्य तीनों लड़Þके उसके पति स्वतः हो गये । पेमा अपने अन्य पतियों को पहली बार देख रही थी । उसका दूसरा पति पेमा से उम्र में थोड़ा छोटा होने के बावजूद उसके ही तरह लक्का जवान और आकर्षक नजर आ रहा था । बाकी के दो तो बच्चे से नजर आ रहे थे । एक तो अभी दस का दिख रहा था और दूसरा शायद बारह वर्ष का किशोर था ! शायद वे अबोध किशोर नवआगन्तुक महिला की उपस्थिति को अजीब मान रहे होंगे । और यह नवआगन्तुक महिला उनकी भी पत्नी है, यह जानकर भी पत्नी का सही अर्थ समझ नहीं पा रहे होंगे । पत्नी भोग की कल्पना तो उनके जेहन में दूर–दूर तक नहीं होगी । उसकी सास ने अपनी उन चार संतानों को अपने पहले पति से पैदा की थी या बाकी के पतियों से, यह वही जानती थी । लेकिन प्रचनल यह था कि संतान चाहे जिससे जन्में, वह ज्येष्ठ की ही कहलाती थीं । इसलिए इसमें कोई बखेरा नहीं था, कोई लड़ाई नहीं थी । याङ्जेन को इस बात की फिक्र भी नहीं करना था और भेटघाट के क्रम में उसे इस बात से परिचित भी नहीं कराया गया ।

दिन बीतते चले गये । देमछ्याङ् की विधि संपन्न होने के बाद दो समधियों का मिलन होता है । पेछयाङ् की विधि संपन्न होने के बाद कुछ दिनों तक मायके में रही याङ्छेन ने उसके बाद अपने मायके की दहलीज पर पैर भी नहीं रखा है । पेछ्याङ के बाद अपने मायके से तिलक दहेज के साथ यहाँ आने के बाद उसे मायके जाने का वक्त ही नहीं मिला । सात–आठ लोगों का परिवार की देखभाल उसे ही करनी पड़ती है । उसका एक पति भोट, दूसरा खर्क और तीसरा गाँव से दूर खेतीपाती में होने के बावजूद घर में रहे सास–ससूर और खुद की दो–दो संतानों की देखभाल उसे ही करनी पड़ती है । घर के और अन्य इधर–उधर के कामों से उसे फुर्सत नहींं मिलती थी । वह चाहकर भी मायके जा नहींं सकी थी ।

आज वह अपने चार पतियों में से दूसरे के साथ बाँटी जा रही है । इससे वह काफी उदास है । उसे अच्छा नहीं लग रहा । सुबह ही उसने अपने ज्येष्ठ पति, जिसे वह वास्तव में अपना पति मानती थी, नमक का व्यापार करने के लिये बाहर भेजा है । तिछ्याङे से लेकर आज तक के प्रत्येक सहवासों में पेमा ने उसे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से पूर्ण रूप से संतुष्टि दी है । उसका प्यार पाकर वह संतुष्ट थी, कोई शिकायत नहीं थी ।

–‘अपनी देखभाल अच्छी तरह करना पेमा ! सातू भूजा जो भी मिले, भरपेट खाना ! देखना, भूखे मत रहना ! याङ्जेन ने अपने पति पेमा को कहा था और विदा किया था ।
–‘ तुम बिल्कुल चिंता मत करो ! आज से तुम्हार ख्याल मेरा भाई साङ्ले करेगा । उसको ही पति मानना । आराम से रहना । मैं भी आ जाऊँगा ।’ पेमा ने भी उसे समझाते हुए कहा था ।                   

पेमा को विदा करने के बाद याङ्जेन सारा दिन अपने आप को घर के काम धंधों में व्यस्त रखा । मगर मन में शांति नहीं थी । रह–रहकर उसकी आँखों के सामने पेमा और साङ्े का चेहरा तैर जाता था और ये दो चेहरे एक आपस में घूलते नजर आते थे । एक से लगते थे ये दो चेहरे । फिर भी एक नहीं लग पाते । वैसे याङ्जेन ने अपने को अपने विभिन्न मर्दों के बीच बाँटने का मजबूत इरादा कर लिया था । मगर इसके बावजूद उसका इरादा कामयाब नहीं हो पा रहा था । यह कैसे संभव था कि एक रात पहले अपने एक पति की बाँहों में समाई और अपने को समर्पित की हुई नारी सुबह होते ही दूसरे पति की बाँहों में उसी सहजता और मुहब्बत से समा जाय । वह खुद से सवाल करती है और यह सोचने पर मजबूर हो जाती है कि आखिर उसके जेहन में भी उसके ससूर और गाँव के बहुपति वरण करने वाले अन्य लोगों की तरह सोच क्यों नहीं पनप पाती है । वह यह सोचने पर मजबूर हो जाती है कि यदि स्वेच्छा से बहुतों की बाँहों में समाना वेश्यावृत्ति है तो बहुतों की पत्नी होना क्या है ? उस और इस स्थिति में क्या तात्विक अन्तर है ? माना कि समाज ने इस बात की छूट दे रखी है, मान्यता दे रखी है । लेकिन क्या मैं कल से चार–चार पतियों के सहवास के बाद आज की तरह आप को सहज और सरल देख पाऊँगी ? आज का यह समाज इस तरफ क्यों नहीं देता है ? यह समाज यह क्यों नहीं सोचता कि पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे को रोकने के लिये किया गया यह आविस्कार नारी–अस्मिता पर कितना बड़ा आघात पहुँचाता है ? क्या समाज की परंपराएँ और प्रचलन को भी तो समय के अनुसार परिवर्तन होना चाहिये ? हाँ, कल लड़कियों की संख्या कम थी और इस तरह की बहुपति–प्रथा कायक रखने की मजबूरी थी । मगर आज तो यह समस्या नहीं है । लड़के–लड़कियों की जनसंख्या समान ही है । इतना ही नहीं, अब तो पैतृक सम्पत्ति की स्थिति भी पहले की तरह नहीं है । तो फिर क्यों नहीं यह प्रचलन बदल रहा ?

याङ्जेन अपने ऊपर सवालों के हो रहे लगातार विस्फोटन से थर–थर काँपने लगती है और उसकी खामोशी ने उसे दबोच रखा है । उसके सवाल सवालों में सिमट कर रह जाते हैं ।
–‘याङ्जेन ! सोना नहीं है क्या ? घर का सारा काम–धंधा तो हो ही चुका होगा न !’ इच्छा न होने के बावजूद उसने आज घर में घी का दिया जलाया है । उसने भी पहले पति को व्यवसाय करने के लिए बाहर भेजने और दूसरे पति का स्वागत करने के क्रम में इस तरह घी का दिया जलाने के प्रचलन को स्वीकार किया है । लेकिन उसके मन में अब भी पेमा ही है । उसके दूसरे पति साङ्गे की कहीं कोई बात नहींं है । कहने का मतलब यह है कि याङ्जेन ने साङ्जे को मन से अपना पति नहीं माना है । अन्य दो नाबालकों की तो कोई बात ही नहींं है । उधर साङ्जे भी याङ्जेन के मन के महाभारत से पूरी तरह बेखर था । वह तो यही समझ रहा था कि याङ्जेन ने घी का दिया जलाकर एक की बिदाई और दूसरे का स्वागत करने की परंपरागत विधि को संपन्न करके अपनी स्वीकृति दे डाली है । वह तो यही समझ रहा था कि याङ्जेन ने अपने आपको पूरी तरह से समर्पित कर दिया है । याङ्जेन थी भी काफी खूबसूरत । साङ्जे उसकी खूबसूरती का दीवाना हो गया था । वह उस घड़ी का इन्तजार कर रहा था कि कब उसका बड़ा भाई कहीं जाये और याङ्जेन को वब भोगे । याङ्जेन को भोगने की कल्पना में ही उसने अपने दिन और रातें गुजारी थी ।

हालाँकि एकबार उसने यह सोचा भी था कि वह अपनी इच्छा के मुताबिक शादी करेगा और अपने बाप दादाओं की सम्पत्ति की लालच छोड़ देगा । आखिर कितनी है सम्पत्ति ! जीने के लिये कोई न कोई उपाय निकाल ही लेगा । कुछ न कुछ हो ही जायेगा । इतना ही तो है कि समाज के नियम के मुताबिक घर में रहकर एक को ही साझा पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करने पर पैतृक सम्पिित्त से हाथ धोना पड़ेगा । लेकिन इसके बदले अपनी इच्छा मुताबिक पत्नी की प्राप्ति और उसके साथ जीवन भर का आनंद का लाभ भी तो है । अपनी, केवल अपनी पत्नी और अपनी संतान और केवल अपना ही परिवार ! अर्थात् अपने अस्तित्व और अपनेपन के साथ जीने का मजा ! अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जिन्दगी बिताने का आनंद । कहीं से कोई खतरा नहीं । कहीं से कोई मलाल नहीं । लेकिन याङ्जेन की खूबसूरती और आकर्षण ने उसे ऐसा नहीं करने दिया था ।  याङ्जेन की खूबसूरती और आकर्षण मेंं ही  रहने का कोई इरादा भी नहीं था । वह उसे एक याम तक भोगने के बाद किसी दूसरी औरत को अपनी पत्नी बनाकर और अपना धन सम्पत्ति छोड़कर अलग भी रह सकता था । पुरुषों मिली यह आजादी फिर घर की बड़ी बहू को नहीं थी । वे तो अपनी देह से लेकर मन को रोटी की तरह टूकड़ा–टूकड़ा करके बाँटने के लिये मजबूर थीं ।

‘......’ साङ्जे का ‘सोना नही है क्या’ के सवाल ने याङ्जेन को अंदर से हिलाकर रख दिया था । उसको साङ्जे की नये सहवास की व्यग्रता ने कंपित कर दिया था । उसके मन में ज्वार उठ गया था,–‘ क्या समझते हैं ये मरद अपने आपको ? क्या नारियाँ इनकी मदान्धता शमन करने और इनकी वासना के कब्र पर सो जानेवाली लाश हैं ? इनके बिस्तर की चादर हैं ? सवाल तो काफी विस्फोटक था । मगर वह कुछ नहीं बोल सकी । मन के ज्वारभाटा को मन में ही दबा रखा ।

अब तक कोई जवाब न पाकर साङ्जे उसके करीब आ गया है । कमरे में रोशनी फैली हुई है और अँगीठी के सामने याङ्जेन बैठी हुई है । परिवार के सारे लोग खर्क में हैं । अर्थात् वहाँ किसी भी भौतिक उपस्थिति नहीं है । किसी की भी जीवित अस्तित्व नहीं है । दीवारों से सटा तख्ता है । पूर्ववाले तख्ते पर मूर्तियाँ रखी हुई हैं । भगवान बुद्ध, अवलोकितेश्वर और तारा आदि की आकर्षक मूर्तियाँ ! एक दूसरे तख्ते पर याङ्जेन के द्वारा धो माँजकर रखे गये बर्तन हैं । वे बहुत ही सलीके और कलात्मक ढंग से रखे गये हैं । नीचे जमीन पर चट्टाई, गद्दा, भुवेदार बिस्तर बिछाई गई है । कमरे का वातावरण वैसे ही मादक, मोहक और आकर्षक है ।  वैसे वातावरण की यात्रियों में रोमांचकारी अनुभूति का होना अस्वाभाविक नहीं था । और साङ्जे तो ऐसे ही परिवेश, वातावरण और रोमांचकारी क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था । वैसी मानसिकता और वातावरणीय उत्प्रेरणा ने साङ्जे को व्यग्र बना दिया था, जो स्वाभाविक था । वह याङ्जे के करीब बैठ जाता है उसकी उँगलियाँ धीरे–धीरे याङ्जेन के अंगों के साथ खेलने लगती हैं । सिर,मुँह, गाल और होठों से गुजरते हुये उसकी उंगलियाँ उसके संवेदनशील अंगों का भी अतिक्रमण करने लगती हैं । साङ्जे की उंगलियाँ और उनकी गतिविधि एवं चेष्टाएँ उसे अच्छी नहीं लगतीं । किसी सर्पदंश के समान लगती हैं । ‘क्या कर रहे हैं ?’ जाइये, आप सो जाइये ! मुझे यहीं रहने दीजिये ! मैं आप सभी की बाँहों में भर के नहीं जी सकती । एक के अलावा दूसरे की पत्नी होकर जीने से बेहतर है मर जाना । मैं भी मर जाऊँगी ।’

 याङ्जेन का अप्रत्याशित आक्रोश और विद्रोह देखकर साङ्गे कुछ बोल न सका । वह भौचका रह गया । सोचने लगा,–‘ चलो, कोई बात नहीं । आज पहला दिन है । पहली रात की असहजता है । कल तो ठीक ही हो ही जाएगा ।’ उधर याङ्जेन सो नहीं सकी । रात भर जगती रही । वह सोच रही थी,–‘ आज तो उसने अपनी अस्मिता की रक्षा कर ली है.... लेकिन .... कल ? उसके अंदर आशंका तो था लेकिन उसके साथ–साथ  प्रवल आत्मविश्वास ं भी था–‘ऐसे रोटी की तरह बाँटकर मैं जिन्दा नहीं रह सकती ।’

००                                             
 

Thursday, January 10, 2019

दिव्योपदेश प्रति कति इमान्दार छौं हामी ? पृथ्वीप्रतिपादित नीतिको उपेक्षा आजको विचलन !



(प्रकाशोन्मुख रचना)
नेपाली समाज दिनप्रतिदिन विभाजन, विखण्डन, परनिर्भरता र विद्वेषको दिशातर्फ अग्रसर भइरहेको देखिँदैछन् । प्रधानमन्त्री स्वयम्ले नै “जनता एकजुट भएको बेला विखण्डनको कुरा गर्ने, धार्मिक विद्वेष फैलाउनेहरूबाट सबै सजग हुनपर्छ । जनता र विभिन्न जातिको नाममा मुलुकमा आपसी सद्भाव खल्बल्याउन खोज्नेलाई सरकारले छाड्दैन ।” भनेर राष्ट्रिय सुरक्षा परिषद्को बैठकमा सार्वजनिक रूपमैं बोल्नु पर्ने अवस्था आउनु भनेको गम्भीर कुरा हो । (प्रधानमन्त्री, के.पी.शर्मा ओली, गोरखापत्र दैनिक २५ वैशाख २०७५) । खुलेआम देश टुत्र्mयाउने अभिव्यक्ति दिने मात्र होइन विदेशी प्रधानमन्त्री समक्ष सम्विधान विरुद्ध तावेदारी गर्ने प्रदेशका मुख्यमन्त्रीलाई समेत कुनै कारबाही नहुँदा यस्तै अराजकताले अरु प्रोत्साहन पाइरहेका छन् । भाषा, धर्म, संस्कृति, परम्परा र भौगोलिक विचलन तथा ससासाना एकाइगत पहिचानको विवादले नेपाली एकताको सूत्र र समग्र राष्ट्रिय पहिचान मेटिने आशङ.्का बढिरहेको छ । यस पृष्ठभूमिमा पृथ्वीनारायण शाहजस्ता दूरदृष्टि भएका महानायकको योगदान संझन हुनु स्वभाविक हो ।
नेपालको प्राचीन र मध्यकालीन इतिहासको शुद्धिरकरण हुन नसक्नु नै यसो हुनुको प्रमुख कारण देखिन्छ । युद्धमा हार्नुलाई र कसैको इज्जत जाने कामलाई पुर्खाले तुक्काका रूपमा नाक काटिनु भन्दै आएका हुन् । त्यस अर्थमा युद्ध हार्नुबाट तत्कालीन कीर्तीपुरे शासकको नाक काटिनुको अर्थ अस्वभावि थिएन । यो कुनै जातिदमन र जातिको हारजीतको कुरा नभएर त्यहाँका शासकको हारजीतको कुरा थियो । तर त्यही तुक्कालाई ऐतिहासिक तथ्य मान्ने डलरजीवीहरू यस्तै तथ्यहीन कुरालाई लिएर आज जातीय विद्वेषको राँको बाल्ने असफल प्रयत्न गरिरहेका छन् ।
विक्रमको उन्नाइसौं शतब्दीको पूवाद्र्धसम्म पनि नेपाल अनेक स–साना राज्यमा विभक्त थियो । विभाजित राज्यका भुरेटाकुरे शासकहरू आ–आप्mनै सीमित स्वार्थमा डुबिरहेका हुन्थे । यसरी विभाजन र स्वार्थपूर्ण संघर्षका कारण टुक्रा टुक्रामा विभाजित नेपाल कमजोर थियो । उता छिमेकमा व्यापारको निहुँमा इष्ट इन्डिया कम्पनीको रूप धारण गरी अङ्ग्रेजहरू भारत पसिसकेका थिए । तिनले विक्रिका बस्तुसँगै बन्दूक र बाइबल भित्र्याएर भारतीय राजारजौटाहरूलाई बेलायती साम्राज्यको छातमुनि ल्याउँदै भौगोकि तथा धमार्मिक साम्राज्यको बिस्तार गरिरहेका थिए । त्यतिबेला भारतको बंगाल र विहारलाई आफ्नो साम्राज्यमा मिलाएर हिमालयको उत्तर पश्चिमी भूमागतर्फ उनीहरू आँखा गाड्दै थिए । अंग्रेजसँगै आएको क्रिश्चियन धर्मको प्रसारले पनि त्यहाँ व्यापकता लिँदै थियो । इतिहासकारहरूका अनुसार नेपालमा पनि मल्ल राजा प्रतापमल्लकै पालादेखि क्रिश्चियन धर्म प्रचारकहरूसक्रिय थिए । यी यथार्थ पृथ्वीनारायण शाहबाट लुकेको थिएन । नेपाललाई “यो फूलबारीका ठूलासाना चारै जात छत्तीसै वर्णले असली हिन्दुस्थाना“ ठान्ने पृथ्वीनारायण शाहले शक्तिहीन विभाजित नेपालका भूभागलाई अंग्रेजले सहजै आफ्ने कब्जामा लिएर भारतमा फैलिँदै गएको इशाई धर्मको प्रसार तीब्र हुनसक्ने आशंका गर्नु स्वभाविक थियो । त्यसैले नेपालभित्र धर्म प्रचारमा सक्रिय रहेका नयाँ पुराना इशाईहरूलाई प्रोत्साहन दिएमा यो समस्या अरु बढ्ने निश्चित थियो । त्यसैले उनले उपत्यका विजय गरेपछि तिनलाई देशबाट निकाल्नु अस्वभाविक थिएन । विदेशी इतिहासकारहरूले यही कुरालाई लिएर पृथ्वीनारायण शाहलाई बदनाम गर्ने छिद्र खोज्नु पनि स्वभाविक थियो । उनीहरूबाट त्यही काम भयो । हामीले तिनैलाई ब्रह्मवाक्य मानिदियौं । गोरो छलाले भनेको सबै कुरालाई अकाट्य ठान्ने हाम्रो मनसिकताले तिनका गल्पहरूलाई पनि इतिहास ठान्यौं ।
यो भूभागलाई भारत र दक्षिण एसियाभर बढ्दै गएको अंग्रेजी साम्राज्यवादको बिस्तार र फैलँदो इशाईकरणबाट जोगाउन दरिलो सैनिक संगठन निर्माण गरी टुक्राटुक्रमा विभक्त सबै छिमेकी राज्य रजौटाहरूलाई एउटै मालामा नउनेका भए आज विशाल नेपाल देख्न सम्भव थिएन । उक्त कार्यमा बलिया र त्यतिबेलाका धनी राज्यहरूमध्येका अरु कुनैले पनि नेतृत्व लिन सक्थे । काठमाडौं ललितपुर र भक्तपुरका मल्ल रजाहरूले लिनसक्थे, कीर्तपुरले लिनसक्थ्यो त्यो नेतृत्व । तर ती कुनै राज्यले त्यही अवस्थामा शक्ति विभाजित भइरहँदा भविष्यमा आफू पनि अंग्रेज साम्राज्यको बूटमुनि दबिनुबाट उम्किन सकिँदैन भन्ने सोच्न सकेनन् । न त त्यसो गर्न आवश्यक शक्तिसञ्चय नै गर्न सके । नेपालको तराई भागको वन्यसम्पदा, मध्य भागको उनीहरूको देश अनुकुल हावापानी र तिब्बतसँग आफैं स्वतन्त्र किसिमले व्यापार गर्ने चाहनाका कारण पनि तिब्बतसँगको निकट व्यापार नाका आदिक कारण उनीहरू आँखा नेपालमाथि पनि गडिएको थियो । अबस्थामा प्राचीन नेपालको अस्तित्व काय रहन सक्दैनथ्यो । भविष्यको यो संभावना त्यतिबेलका अरु राजा र राज्यले देखेर सैनिक संगठन सुदृढ गराउने र अंग्रेजसँग आँखा जुधाउने साहस देखाउन सकेको भए नेपाल राज्यको एकीकरणको जस पनि गोर्खा र खस राजालाई नभएर उनीहरूलाई नै जान्थ्यो होला । तर त्यो साहस उनीहरूले गर्न सकेनन् । त्यतिबेलाको उनीहरूभन्दा कान्छो र आर्थिक तथा सैनिक संगठनमा समेत कमजोर राज्य गोरखाले त्यो साहस देखायो । त्यसैले यो सत्यलाई लुकाएर नेपाल राज्यको एकीकरणलाई साम्राज्यवादी सैनिक विजयका रूपमा हेरिनु विवेक सम्मत हुँदैन, न त एकोहोरो रूपमा गोरखा राज्य र गोरखाली खस राजाको खोइरो खन्नुको औचित्य देखिन्छ ।
पृथ्वीनारायण शाहको विजय अभियानले नेपाललाई छिमेकी राज्य भारतमा विशाल सेना र शक्तिसहितको इष्टइन्डिया कम्पनीले चलाईरहेकोे उपनिवेशीकरण अभियानको शिकार हुनुबाट जोगायो । वर्तमान नेपालको तत्कालीन पूर्वाधार जातीय राज्यरजौटाहरू भएकाले पृथ्वीनारायणको नायकत्वमा सम्पन्न भएको भए पनि एकीकरणको ऐतिहासिक महायज्ञका सहयोगी विभिन्न जातजाति थिए । पृथ्वीनारायण शाले पनि त्यो तथ्य बुझेर नै “म नै राज्य हुँ, यो राष्ट्रको एकमात्र निर्माता म नै हुँ” भनेनन् । उनले “मेरा साना दुःखले आज्र्याको मुलुक होइन, सबै जातको फूलबारी हो, सबैलाई चेतना भया” भनेर प्रष्ट भने ।
यी सबै तथ्यलाई बेवास्त गर्दै आजका स्वार्थमुखी केही प्रवृत्तिहरू पृथ्वी नारायणको नेपाल एकीकरण अभियानलाई एउटा अतिक्रमणकारी सामन्त राजाको अन्य जातिमाथिको आक्रमण भन्ने संज्ञा दिने गर्छन् । तर यथार्थमा त्यो नेपाल एकीकरणको प्रथम चरण थियो । उनी आक्रमणकारी मात्र भएका भए विजयप्राप्त देशको परम्परादेखि चलिआएको संस्कृतिलाई दमन गर्थे । उल्टो विदेशी नाचगान हेर्नुभन्दा अरु राज्यले पनि तीन शहर नेपाल (काठमाडौं, पाटन, भक्तपुर) का नाचगान झिकाएर हेर्नू भन्दै राष्ट्रिय संस्कृति निर्माणको जग बसाल्दैनथे । प्राचीन संस्कृतिको भण्डार काठमाडौं उपत्यकाको विजय प्राप्तिपश्चात उनले त्यहाँको धार्मिक–सांस्कृतिक क्रियाकलापमा आर्थिक सहयोग गरे । गोर्खाली वा खस संस्कृति लाद्न चाहेका भए उनीबाट यस्तो व्यवहार हुँदैनथ्यो ।
पछि मुख्तियार बहादुर शाहको नेतृत्वमा दोस्रो चरणको एकीकरण अभियानमा पछि सुगौली सन्धीले गुमाएको किल्ला काँगडसम्मको भूभाग नेपालमा मिलाए विशाल नेपालको निर्माण भयो यी दुवै चरणका एकीकरण अभियानमा यहाँका प्रत्येक जातिले आ–आफ्नो क्षेत्रबाट आफ्नै किसिमको योगदान गरेका हुन् ।
पृथ्वीनारायण शाह सुदूर भविष्यसम्म देख्न सक्ने सचेत नेपालली शासक मात्र नभएर नेपालले जन्माएका अत्यन्त बहादुर, राष्ट्रवादी, भाषा–संस्कृति प्रेमी कुशल प्रशासक एवं दूरदर्शी राजा थिए । त्यस बेलाको विकट परिस्थितिमा नेपालको एकीकरण गर्ने सोचका साथै त्यसलाई यथार्यमा परिणत गर्ने कटिबद्धता कम दूरदर्शी र साहसपूर्ण कदम थिएन । सिंगो जीवन एकीकरणको सद्कार्यमा लगाएर खासै सत्ता ससुख लिन नपाए पनि थोरै सयमैं उनले इतिहामै पहिलो पटक नेपाली राष्ट्रवादको आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषिक, भूव्यव्यवस्थापन लगायतका विभिन्न नीति–प्रवर्धन गरे ।
वाह्य सम्पर्क र अंग्रेजी साम्राज्य बिस्तारको प्रभावस्वरूप नेपालीहरूके धर्म, भाषा र संस्कृतिका अन्य पक्षमा पर्नसक्ने असर आकलन गरे । त्यसको नियन्त्रणका लागि आत्मनिर्भर स्वदेशी आर्थिक तथा नेपाली मौलिकतामा आधारित राष्ट्रिय सांस्कृतिक नीतिको खाका कोरे । वाह्यधर्मको प्रभाव नियन्त्रण गरी धार्मिक सुदृढताको पक्षमा स्पष्ट नीति लागू गरे । शिक्षाको सुदृढीकरणका साथै आत्मनिर्भर स्वदेशी उद्योगको संरक्षणका लागि स्पष्ट नीति तर्जुमा गरे । उनले दिव्य उपदेशमा भनेका छन्– “विदेशी कपडा लाउन मनाही गरिदिनू । आफ्नो देशको कपडा बुन्न जान्नेलाई नमूना देखाइ सघाउनू र बुन्न लगाउनू । यसो भए नगद विदेश जाँदैन । विदेशका महाजन हाम्रो मुलुकमा आए भने दुनियाँलाई कंगाल गराउँछन् । आफ्नो देशका जिनिस र जरीबूटी विदेश पठाई नगद् खिच्नू । खानी भएका ठाउँमा गाउँ भए पनि अन्यत्र सारीकन पनि खानी चलाउनू । गह्रो बन्ने जग्गामा घर भए पनि घर अरु ठाउँमा सारी कुलो काटी खेत बनाई आवाद गर्नु ।” त्यतिबेलाको समयमा यो उद्योग नीति कम बुद्धिमानीपूर्ण थिएन । उनी पछिको नेपालले समेत अंगीकार गर्दै जानु पर्ने यी मार्गदर्शन पछिल्लो नेपालले बिर्सँदै गयो । त्यस विपरीतको् गलत नीति अवलम्वन गरिँदै गयो । यसकै फलस्वरूप मुलुक आज विदेशी उत्पादनको डम्पिङ साइट बन्दैछ । व्यापारघाटा देशले धान्न नसक्ने गरी बढिरहेको छ ।
“बूढ मरे, भाषा सरे” भन्ने पृथ्वीनारायण शाहको उपदेश बिर्सेर हामी आफ्ना सन्तानलाई मातृभाषाबाट अलग्याएर कमाउ अंग्रेजीभाषा मोहको भोक जगाउँदै छौं । राष्ट्रिय भाषालाई अन्य कुनै विदेशी भाषा सरहनै मात्र अभिव्यक्तिको सामान्य माध्यम मानेर पराइभन्दा पनि कम मान्यता दिने प्रवृत्ति हामीमा निकै बढ्न थालेको छ । भूमण्डलीय विश्वसभ्यताको प्रतीक बन्दै गएको अङ््गे्रजी भाषा र पश्चिमा संस्कार–संस्कृति तथा डलर मोहनीले व्यामोहित आजका हामी प्राय सबै नै राष्ट्रिय भाषा र संस्कृतिलाई त्यति महत्व दिन तयार छैनौं । यो अवस्थाबाट वर्तमान नेपालले छुट्कारा पाउने उपायस्वरूप अघिसारेको मातृ भाषामा शिक्षाको अवधारणा पनि अंग्रेजी मोहका कारण राजनीतिक नारामा मात्र सीमित भइरहेको छ । यसलाई सफल तुल्याउने अन्तरदेखिको प्रतिबद्धता सर्वप्रथम मातृभाषी समुदायमैं विकसित हुनु जरुरी पर्छ । तर आज कमाउ भाषा अङ्ग्रेजी विग्रने डरले शिशुहरू आमाको काखदेखि नै घरेलू वातावरणमा समेत मातृ भाषा सुन्न र बोल्नबाट वञ्चित हुँदैछन् । त्यसैले आज छिमेकका र विश्वका शक्तिशाली भाषा तथा तिनका प्रसारक सञ्चार सञ्जालका कारण कुनै पनि साना राष्ट्र र जातिका भाषा सुरक्षित छैनन ।
भाषामात्र नभएर समग्र नेपाली संस्कृति समेत तीब्र अतिक्रमणको चपेटामा पर्दो छ । विदेशी नाचगान, चालचलन र संस्कृतिको मोहमा स्वसंस्कृति बिस्तारै बिर्सँदै जाने क्रम बढ्दो छ । पृथ्वीनारायण शाहले त्यतिबेलै राष्ट्रिय संस्कृतिमाथि पर्ने चाप र दवावलाई अनुभव गरेर “आफ्ना सोषसयललाई ता शास्त्र बमोजिम तिनै शहर नेपालको नेवारहरुको नाच झिकाई हे¥या पनि हुन्छ । यिनमा दिया पनि आफ्नै देशमा रहन्छ” भनेर बाह्य संस्कृतिको आक्रमणबाट जोगिन सतर्क गराइसकेका हुन् । यही कुरालाई आत्मसात गर्न नसक्दा आज नेपाली संस्कृति कसरी अरुको सेपमा टाक्सिँदै गएको छ र यसकै परिणाम कतिपय जातिका भाषा नाचगान र गीत–संगीत लोपोन्मुख अवस्थामा पुग्दैछन भन्ने उदाहरण देखिंदै छ । पृथ्वीनारायण शाहले त्यतिबेलै दिएका चेतावनीलाई बेवास्ता गर्दाको परिणाम बाटै आजको यो अवस्था आएको अनुमान गर्न कठिन पर्दैन । यो स्थितिलाई न विभाजित भाषा र संस्कृतिको राजनीतिले सपार्न सक्छ, न एक आपसमा विभाजित भएर झगडा गर्दै बाहिरकालाई आफ्नो घर कब्जा गर्न दिने खाले प्रवृत्तिले सुधार आउन सक्छ । पृथ्वीनारायण शाहले भनेका थिए “सुखसयलका लागि तीन सहर नेपालबाट झिकाएर नेपालको नाच हेरे पनि हुन्छ । यसो भए दिएको पैसा आफ्नै देशमा रहन्छ ।” यो कुरा मनन गर्न सकेको भए आज यस्तो अवस्था सायद् आउँदैनथ्यो ।
आज हाम्रोजस्तो विकासका दृष्टिले पछिडिएका राष्ट्रले सांस्कृतिक दृष्टिमा दोहोरो चुनौती बेहार्नु परिरहेको छ । पहिलो, सामन्ती संस्कृतिका संवाहक जनविरोधी संस्कृतिलाई जनसंस्कृतिमा रूपान्तरण गर्ने चुनौती । दोस्रो, सोभियत सङ्घको विघटनसँगै विश्व बैंक र अन्तर्राष्टिय मुद्राकोषलाई अघि सारेर युरापीय युनियन र अमेरिकी नेतृत्वले अघि बढाएको खुला बजार अर्थव्यवस्था तथा भूमण्डलीकरण प्रक्रियासँगै विकसित भएको उपभोक्तावादको छद्म भेषमा प्रसारित साम्राज्यवादी लौकिक संस्कृतिको दुष्प्रभावबाट सिर्जित बाह्यसंस्कृतिको आक्रमणबाटजोगिने चुनौती ।
नेपाली समाजमा सहरी जनसंख्याको सम्पन्न र नवधनिक वर्गको एउटा हिस्सा आधुनिकताका नाउँमा बाहिरी संस्कृतिको अन्धाधुन्द अनुकरण गरिरहेको छ । यही समाजको अर्को सर्वाधिक ठूलो हिस्सा आर्थिक सामाजिक शोषणको हतियारका रूपमा विकसित गलत संस्कार र व्यवहारलाई नै वास्तविक संस्कृति ठानेर अझै शोषण–उत्पीडनको जीवन भोगिरहेको छ । यसरी एकथरी आप्mनो मूल्यमा आधारित सांस्कृतिक पक्षहरुलाई लहैलहैमा त्याग्दै स्वच्छन्दता र नियन्त्रणहीन उन्मुुक्ततालाई आधुनिक सभ्यताको पहिचान ठान्ने गल्ती गरिरहेका छन् । अर्काथरी राष्ट्रिय र जातीय संस्कृतिका नाउँमा सामन्ती सत्ता टिकाउन हतियारका रूपमा प्रयोग गरिँदै आएको आर्थिक–सामाजिक शोषण र विभेदको पर्खाल खडा गर्न सघाउने विभिन्न रीतरिवाज र धर्मपरम्पराहरूबाट अझै शोषण तथा अन्धविश्वासबाट मुक्त हुनसकिरहेका छैनन् । यसरी एकातिर हाम्रो राष्ट्रिय–जातीय संस्कृतिलाई हलिउड र बलिउडकासाथै बहुराष्ट्रिय निगमद्वारा उत्पादित–प्रवद्र्धित बाह्य संस्कृतिद्वारा विस्थापित हुने खतरामा पुगिरहेका छ, अर्कातिर बोक्सी र छूवाछूतजस्ता सभ्यताकै अभिशापहरुबाट नेपाली समाज मुक्त हुन सकिरहेको छैन । यसरी नेपाली संस्कृतिमा घुसेका गलत व्यवहारको परिमार्जन हुननसक्नु र बाह्य सांस्कृतिक अतिक्रमणको अन्धानुसरणमा होमिनुको दोहोरो चापमा नेपाली सभ्यता र संस्कृति अहिले नराम्ररी चेपिएको अनुभव हुन्छ ।
पृथ्वीनारायण शाहले देशकोे आन्तरिक नीति र शासनव्यस्थामा मात्र होइन, मुलुकको भौगोलिक अवस्थालाई समेत ख्यालमा राखेर नेपालको परराष्ट्र नीति सम्बन्धी अत्यन्त व्यवहारिक तथा दीर्घकालीन नीतिको तर्जुमा गरेर गएका छन् । “यो राजे दुई ढुङ्गाको तरुल जस्तो रहेछ” भन्ने उनको निष्कर्ष भारत र चीनजस्ता दुई प्रतिष्पर्धी विशाल मुलुकका बीच च्याप्पिएर रहेको नेपालले कसरी दुबैलाई समान र सन्तुलित व्यवहार गरी आफूलाई सुरक्षित र गतिशील बनाउनुपर्छ भन्ने कूटनीतिक सत्यअनुरुपको थियो । आज झण्डै अढाई शताब्दी पछिको विश्वग्रामको अवधारणयुक्त आजको एकध्रुवीय विश्वमा समेत यो सन्तुलनको सूत्र उत्तिकै व्यवहारिक र भौगोलिक यथार्थ अनुकूल छ । बेलाबखत यो मूल कूटनीतिक तथा नेपालको आधारभूत विदेश नीतिमा विचलन आउँदा एकतर्फ वा पक्षविशेषसँग लहस्सिने कमजोरी देखा¥यो । यसबाट मुलुकले समस्या पनि बहोर्नु परेका उदाहरण प्रशस्त छन् । राष्ट्रिय विभूति बडामहाराजाधिराज पृथ्वी नारायण शाहकोे कुशल नेतृत्वमा आधुनिक नेपाल अधिराज्यको निर्माण र एकीकरण भएको दुई सय तेत्तीस वर्ष पूरा भएको छ । पृथ्वी नारायण शाहको नेतृत्वमा नेपालको भौगोेलिक–राजनीतिक एकीकरण र एकता तथा सैन्यकरण मात्र होइन, हाम्रो सार्वभौमिकता र अक्षुण्णताका साथै मुलुकको रानीतिक,आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रहरुमा सर्वतोमुखी विकासलाई समेत सन्तुलित रुपमा अघि बढाउने प्रयत्न भएको पाइन्छ । जीवनको प्राय सबै समय नेपाल एकीकरणको अभियान अन्तर्गत युद्धभूमिमैं विताएका पृथ्वी नारायण शाह लडाकु मनसिकताका सैनिक मात्र थिएनन्, दूरदर्शी शासक, जनताप्रेमी नेताका साथै सुशासनका प्रवल पक्षधरताका गुणहरु पनि थिए भन्ने प्रमाणका रुपमा उनको दिव्योपदेश हाम्रो अगाडि छँदै छ ।
दुनियाँ जसदेखि राजी रहन्छ त्यसैलाई कजाइँ दिनू ,प्रजा मोटा भया दरबार बलियो हुन्छ जस्ता प्रजातान्त्रिक धारणालाई त्यतिबेलै पृथ्वी नारायण शाहले आफूले मनराएका विराज बखेतीको साटो जनताले रुचाएका कालु पाण्डेलाई अधिकार दिएर व्यवहारिक प्रयोगमा ल्याएका हुन् । बीसे नगर्चीजस्ता सामान्यजनसँग सरसल्लाह गरेर मात्र उनले एकीकरण अभियान अघि बढाएका हुन् । आजको प्रजातान्त्रिक प्रणालीमा बरु जनताका दृष्टिमा गनाएका व्यक्तिहरुलाई शासनसंंयन्त्रमा पदासिन गराइनु सामान्यजस्तै देन्छि । जनताको हित र भलाइमा भन्दा सत्तामा टिकीरहनका लागि आफू र आफ्नालाई मुलुक लुट्न दिने होडबाजीको प्रबृत्तिले प्रोत्साहन पाइरहेको छ । प्रजातन्त्रको मन्त्र जप्नेहरू नै प्रजातान्त्रिक मूल्यमाथि प्रहार गरिरहेकाछन् ।
बडामहाराजाका यी उपदेशहरु उनी पछिकाले पनि त्यति मनन गर्न सकेनन् । पछिल्लो कालखण्डमा त विदेशी शक्तिसाली शासकलाई रिझाएर सत्ता जोगाउने प्रबृत्ति बढ्दै गयो । जनता मोटा पार्नुको साटो उनीहरुलाई शोषण गरेर व्यक्तिको भण्डार भर्ने प्रबृत्तिको होडबाजी सुरुभयो । उनीहरुको विलाशितापूर्ण जीवन शैलीले बाह्य संस्कृतिको प्रसारलाई मदत पु¥यायो । त्यसको छाप र प्रभावलाई पञ्चायती कालखण्डमा त के कुरा २०४६ सालको जनआन्दोलनले पुनःस्थापित गरेको वर्तमान राजनीतिक प्रणाली र यसका सञ्चालकहरुले समेत पन्छाएर फाल्न सकेनन् । पछिल्लो कालखण्डमा त झन जातीय विद्वेष, भाषिक किचलो र धार्मिक–सांस्कृतिक–भााषिक अतिक्रमणका गुमस्ताहरूकै बोलबाल रह्यो । युरोपियन युनियन र पश्चिमा धार्मिक मिसनरी संघसंस्थाहरू एनजिओ–आइएजिओका नाउँमा डलरको बिटो बोक्दै ओइरिए । तिनलाई काँध थाप्ने डलरका भोका केही बुद्धिजीवी र अनेक नामधारी कर्मीहरूको जमानत खडा भयो । पृथ्वी नारायण शाहले उपत्यका पस्न नदिएका क्रिश्चियन धर्मप्रचारकहरूको प्रतिशोधस्वरूप तयार गरिएका कतिपय किम्वदन्तीलाई नै इतिहासको प्रामाणिकता ठानेर २२ किलो नाकका कथा गढिए । हामीले तिनै कुरालाई पत्यार गर्दै आयौं । काटिएको नाकको टुप्पो २२ किलो पुग्न कति जनताको नाक काटिनु पर्ला र त्यतिबेलाको कीर्तिपुरको जनसङ्ख्या कति थियो होला भन्ने हामीले कहिल्यै सोचेनौं ।
यसकै प्रतिफल बडामहाराजाधिराजका “अन्याय मुलुकमा हुननदिनू, न्याशास्त्र बमोजिम अदालत चलाउनू, अदालतको पैसा दरबारभित्र नहाल्नू, नियाँ निसाफ बिगार्ने भनेका घुस दिने र घुस खाने हुन् । यी दुइको त धन, जिउ (सर्वस्व) गरिदिए पनि पाप छैन, यी राजा र प्रजाका महशत्रु हुन्” भन्ने जस्ता आदर्श निर्देशनहरुप्रति बेवास्ता हुँदै गयो । उल्टो यस्ता आदर्श विरुद्ध वातावरण बन्दै गयो । तीस वर्षसम्म आदर्श र मूल्यका लागि ज्यान हत्केलामा राखेर लड्दै आएका अधिकांश नेता र दलहरू पूर्व आदर्शबाट स्खलित हुँदै बरु त्यसैमा बग्दै गए । तिनले आफैलाइै अवमूल्यनको सङ्घारमा पु¥याए, र आज मुलुक यो हालतमा पुगेको छ । भ्रष्टाचारमुक्त सुशासन, जनतानै राष्ट्रको वास्तविक शक्ति हो भन्ने कुरा, जनताको निर्णयलाई आफ्नो चाहनाभन्दा माथि राख्नुपर्छ भन्ने जस्ता कुरालाई आज पनि महत्व दिइएको भए सायद नेपालले आजको जटिल परिस्थिति भोग्नुपर्ने थिएन ।
पृथ्वीनारायण शाहका यी उपदेशहरुले सवा दुईसय वर्षको कालावधि पार गरिसक्दा पनि उनले लिएका आर्थिक, सामाजिक, वैदेशिक तथा सांस्कृतिक नीतिहरु मध्ये अधिकांश आज पनि हाम्रालागि त्यत्तिकै महत्वपूर्ण र उपयोगी छन् । प्रादेशिक वा भौगोलिक सीमाबिस्तारको दृष्टिले मात्र नभएर एउटा न्यायपूर्ण लोककल्याणकारी शासनव्यवस्था तथा उन्नतशील राष्ट्रको निर्माणका प्रवर्तकका रुपमा समेत पृथ्वनारायण शाहको स्थान सुरक्षित रहेको छ भन्नु बढी नठहर्ला । कुनै पनि मुलुकको उन्नति त्यहाँको न्याययुक्त स्वतन्त्र वातावरणको निर्माण, दाउपेचभन्दा योग्यता प्रदर्शन गरेर आफ्नो उन्नति गर्नेे दिशामा प्रतिस्पद्र्धाको सम्मान, योग्यताको कदर, तथा देश र जनता प्रतिको उच्चसमर्पणभावजस्ता कुराहरुको विकासमा निर्भर गर्दछ । उहिले नै पृथ्वीनारायण शाहले अनुभव गरेका यस्ता कुरामा आजको प्रजातान्त्रिक नेपाल समेत सचेत हुननसक्दाको पीडा मुलुकले विभिन्न समस्याका रुपमा बेहोरिरहेको सत्यलाई अस्वीकार गर्नसकिने ठाउँ देखिंदैन ।
विजय निवास, आरुबारी ।