मूल ः विजय चालिसे
अनु ः गोपाल अश्क
(भारत–नेपाल कथा संगम (२०१९), सम्पादकः डा. राजेन्द्र परदेशी, डा. भाष्कर शर्मा र रामकुमार पण्डित, परिन्दे प्रकाशन दिल्ली मा सङ्ग्रीहीत हिन्दीमा अनुदित मेरो कथा । प्रकाशक, सम्पादक विशेषतः साहित्यकार भाइ रामकुमार पण्डित सहित अनुवादक साहित्यकार मित्र गोपाल अश्क सबैला धन्यवाद ! )
आज याङ्जेन अपने दूसरे पति का स्वागत करने के लिये अपने को मानसिक रूप से तैयार करने की कोशिश मेंं लगी हुई है । उसका शरीर तो पति की चाहत पूरा करने के लिये हर वक्त किसी निर्जीव वस्तु की तरह अपने आप को तैयार कर सकता है । लेकिन उसका मन और उसके मन के अंदर का स्त्री का स्वाभिमान इस बहु पति भोग की स्थिति को कैसे सह पायेगा ? वह इस भावना से खुद को कैसे अलग कर पायेगा कि वह इस देह व्यापार करने वाली स्त्री से अलग है । याङ्जेन इसी मानसिक द्वंद्व में पड़ी हुई है ।
वह इच्छा और खुशी से नहीं बल्कि परंपरागत प्रचलन और आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति का शिकार होकर अपने पहले पति को नमक ढोने के लिये भेजकर दूसरे पति की बाँहों मेें भर जाने के लिये विवश हुई है । एक तरह से युद्ध की मानसिक पीड़ा भोग रही है । उसे याद आता है–अभी तो छ महीने ही हुये हैं उसकी शादी के । छ महीने पहले ही तो उसकी शादी उसके पहले पति के साथ ‘देमछयाङ्’ विधि संपन्न होने के बाद हुई थी और वह इस घर में आई थी । उसने देमछयाङ् के पहले और तिछयाङ् के बाद अपने उसी पहले पति पेमा को अपना सबकुछ मानकर अपने आपको समर्पित किया था । शादी की मूल विधि के पहले ही उसने अपने आपको एक पत्नी के रूप में समर्पित किया था । एक आम औरत की तरह उसने भी पेमा के अतिरिक्त किसी दूसरे पुरुष की कल्पना नहीं की थी । एक हिसाब से उसने अपने समाज का वह प्रचलन भी भुला दिया था । वह याद करना भी नहीं चाहती थी ।
अब वह याद करे या न करे । या फिर भूल ही क्यों न जाय । मगर वहाँ एक समाज था, एक परंपरा थी । और उस समाजिक परंपरा को मानना उसकी मजबूरी थी । कहने का मतलब यह है कि वह देमछयाङ् बिधि संपन्न करके पेमा की पत्नी के रूप में उसके घर में आने के बाद वह केवल पेमा की ही पत्नी नहीं थी, बल्कि उसके अन्य तीन भाईयों की भी पत्नी हो गई थी । वह उन लोगों की भी बतौर सामाजिक मान्यता प्राप्त पत्नी हो गई थी । उसके ऊपर न केवल पेमा का बल्कि और तीन पतियों का मालिकाना हक कायम हो चुका था । उसकी नारीत्व का चार भागों में बँटवारा हो चुका था । शरीर को अलग–अलग हिस्सों में सौंपना शायद कठिन न हो, लेकिन उसके अंदर जो सनातन नारी हृदय था, उसका क्या करे ? उसे वह कैसे अलग–अलग हिस्सों में बाँट दे ? अब हृदय शरीर तो है नहीं कि उसे अपनी सुविधा के मुताबिक उलटा–पलटा दिया जाय या रौंद दिया जाय । लेकिन यह स्थिति और मानसिकता आज याङ्जेन के सामने आ खड़ी थीं । उसके चाहने या न चाहने से क्या होता है ? अपने पति पेमा, को बिदा करके उसके मझले भाई को पति के रूप में स्वीकार करना था और उसकी इच्छा की वेदी पर अपनी देह सौंपनी थी । उसे अपने आपको उसके मन के मुताबिक ढालना था । कहने का मतलब यह है कि आज से उसपर दूसरे पति का अधिकार था, हक था । और उसी हक और अधिकार के चलते वह एक याम के लिये उसका उपभोग्य सामग्री बन गई थी । आखिर क्या अंतर है उसमें और उसके पति के द्वारा ऊन देकर लाये हुये नमक के अस्तित्व में ? नमक एक वस्तु है जिसे हर कोई प्रयोग कर सकता है । जैसे कि उसे पेमा के तीनों भाई अपनी इच्छा के अनुसार एक–एक याम के लिये उपभोग कर सकते हैं । कल जब उनका मन भर जाय तो वे अपनी पैतृक संपत्ति और उसे छोड़कर किसी और के साथ अलग हो सकते हैं । वह केवल उनकी पैतृक संपत्ति उपभोग करने वाली एक शर्त ही तो है ।
उस दिन वह यह तय नहीं कर पा रही थी कि वह खुशी हो या दुःखी । उस दिन उसका तिछ्याङ् (सगुन) आ रहा था । उसके गाँव के बगल वाले गाँव जोरखोल्सी से उसकी शादी का सगुन आ रहा था । अर्थात् पेमा फुंजो के पिता याङ्जेन को बहू बनाने के लिये विधि अनुसार ‘वा’ (सगुन) ला रहे थे । जिस हाँड़ी पर वह ‘वा’ रखा हुआ था उसे याङ्जेन के पिता अस्वीकार कर ही नहीं सकते थे । क्योंकि इसके पहले वे इस बात के लिये राजी हो चुके थे । उनके सहमत होने के बाद ही यह विधि संपन्न की जा रही थी । याङ्जेन के पिता ने उस हाँड़ी की शराब पीते ही पेमा फुंजो के साथ उसकी शादी तय हो गई । ‘तिछ्याङ’ की विधि इस कुछ इस तरह से पूरी हुई थी ।
–‘क्या सोच रही हो याङ्जेन ?’ अभी से पेमा को याद करके हमे भूल गई क्या ? क्या सोचती हो ? तुम तो केवल एक पेमा की ही नहीं, बल्कि एक ही बार में चार–चार पुरुषों की पत्नी हो गई ! खूशनसीब हो तुम ! छाङज्यू की आवाजा सुनते ही याङ्जेन अंदर से काँप गई ।
इसी बात से तो वह गली जा रही थी । उसे यही चिंता खाई जा रही थी कि आखिर वह किस तरह चार–चार पतियों को बहला पाएगी ? उसने बचपन में पाँच पांडव की कहानी सुन रखी थी । उस कहानी में उसने सुना था कि द्रौपदी के पाँच पति थे । उस वक्त उसे सोचा भी था कि द्रौपदी को पाँच पतियों के बीच में रहते हुए कैसा लगता होगा ? बच्ची ही तो थी वह । खुश भी होती थी सोचकर । उसे लगा था कि पाँच–पाँच पतियोंं का प्यार पाना कोई कम खुशी की बात नहीं है । खुशनसीबी है यह । आज पाँच तो नहीं लेकिन चार–चार पतियों की एक साझा पत्नी की हैसीयत में खड़ी हो गई है । दो तो छोटे ही हैं, उसने सुना था । एक दस साल का है और दूसरा बारह साल का है
। अभी उन्हें जवान होने में दो–चार साल लगेंगे । लेकिन दूसरा पति तो एकदम गबरू जवान है, पेमा की तरह ।
याङ्जेन को बहुत बुरा लगा था – यह किस तरह की परंपरा का शिकार होना पड़ा है मुझे और मेरे समाज की लड़कियोंं को । ऐसा लगता है कि जानवरों का समाज है यह ! अब क्या सोचना है छाङ्ज्यू ! यह केवल हमारा ही चलन नहीं है । केवल मेरी ही जिन्दगी में विपत्ति नहीं आई है ? आज मैं शिकार हुई हूँ, कल तुम सभी लोगों को इस चलन का शिकार होना पड़ेगा । यह नियति भोगनी पड़ेगी ।’ याङ्जेन ने अपने बचपन की सहेली छाङ्ज्यू से अपनी पीड़ा व्यक्त की ।
–‘ देखो ! मैं नहीं मानती हूँ ऐसी परंपरा ! ऐसी भी कहीं परंपरा होती है ? कि एक लड़की किसी एक घर के सारे मर्दों की पत्नी बने ! इससे तो अच्छा कि मैं मंदिर चली जाऊँ, भिक्षुणी बन जाऊँ ! सुनती हो,मैं तो बहुतों की पत्नी नहीं बनूँगी ।’ छाङ्ज्यू याङ्जेन की तरह नहीं है । थोड़ी विद्रोही स्वभाव की है । जो उसे पसंद नहीं होता, उसके लिये वह लड़–भीड़ जाती है । गाँव के स्कूल में साथ–साथ पढ़ने–रहने के बावजूद उनके स्वभाव नहींं मिलते । एक लजवंती झार की तरह है, जो किसी के देखने भर से शर्माकर अपने आप में सिमट जाती है । और दूसरी एकदम प्रतिवाद करनेवाली, किसी का दबाव नहीं सहने वाली और विद्रोह करने वाली , रणचंडी की तरह ।
‘काश ! मैं भी छाङ्ज्यू की तरह विद्रोह कर पाती ! लेकिन सभी कहाँ विद्रोह कर पाते हैं ! वह मन ही मन सोचती जा रही थी । शायद इसी स्वभाव के कारण उसने अपने पिता के निर्णय और सामाज की परंपरा के आगे अपने आप को समर्पित कर दिया था । शायद उसने एकांकी विद्रोह को आत्मघात माना था । बीतते समय के साथ प्रारंभ में सपने से लगनेवाले दिन को भी कड़वा हकीकत मानकर गुजारना पड़ता है । लेकिन कभी–कभी अपने ही मन में सवाल पैदा हो जाता था , –‘ क्या यही है मेरे नारी जीवन की स्वाभाविकता ? क्या अलग रुचि, अलग स्वभाव और अलग प्रकृति के विविध पुरुषों को धारण करने से उत्पन्न होनेवाली जटिलताओं के प्रति हर वक्त त्रसित और शंकित होकर तलवार की धार की जैसी संतुलन बनाकर जीना ही मेरे जीवन की स्वाभाविकता है ? क्या यही है मेरे जीवन का सामान्य रूप ?’
–‘ माँ ! मेला देखने जाऊँ ?’ गोम्बा में आज मेला लगा हुआ है । है न ?’ उसकी पहली सिर्जना पाङ्जेन अनुमति मांगती है ।
–‘ अब जाना चाहते हो तो जाओ, मगर अंदर मत जाना । लोगों को अच्छा नहीं लगेगा ।’ बेचारा छोटा–सा बच्चा यह बात समझ नहीं पाता है कि अंदर जाने से लोगों को क्यों अच्छा नहीं लगेगा ? उसी सोच में उसने ‘आखिर क्यों’ सवाल भी न कर सका ।
याङ्जेन को अपनी अन्य संतानों से ज्यादा इस पाङ्जेन से ज्यादा लगाव है । उसके प्रति ज्यादा प्रेम है । चाहे जो कुछ भी हो, यह उसकी पहली सिर्जना है । और उसकी इस पहली सिर्जना से समाज या उसका परिवार अब चाहे जो समझे, कोई फर्क नहीं पड़ता । वह इसमें हीनता की कोई बात नहीं पाती । हाँ,उस वक्त उसने थोड़ी बुद्धिमता से काम नहीं ही लिया था ।
पिता के द्वारा तिछयाङ स्वीकार करने के बाद सामाजिक रूप से उसकी शादी पेमा फुंजो के साथ होने की पहली विधि पूरी हई । प्रचलन के अनुसार ही उसके होनेवाले पति पेमा को ससुराल आने–जाने का अधिकार प्राप्त हो गया । समाज ने उसे तिछयाङ विधि पूरी होते ही होनेवाली पत्नी के साथ सहवास के लिये रात गुजारने का अधिकार तो दे ही दिया था ।
पिघले हुए पीले सोने की तरह उसका गोरा रंग, सुडौल शरीर, लंबे बाल और सुंदर चेहरा ने याङ्जेन को अपनी तरफ आकर्षित किया ही था । वह भी उस सुंदर युवक के प्रति आकर्षित हो गई थी । वह भी काफी सुंदर युवक था । मूँछ हल्की–हल्की उगने लगी थी । और वे दोनों एक दूसरे की तरफ आकर्षित क्यों न हों ? आखिर वे एक दूसरे के होनेवाले जीवनसाथी थे । संसार द्वंद्वात्मक है, मैथुनजन्य है और इसके सारे पदार्थ स्त्री–पुरुष के रूप में विभाजित हैं । अर्थात् प्रकृति और पुरुष ! प्रकृति और पुरुष अर्थात् स्त्री और पुरुष की आकर्षण शक्ति ही संसार के अस्तित्व का मूल आधार है । और स्त्री पुरुष के बीच की अन्तर्निहित चुंबकिय शक्ति से आकर्षित होना अस्वाभाविक भी तो नहीं था । उस पर उन्हें सामाजिक मान्यता भी प्राप्त थी ।
पेमा के साथ शादी करते समय याङ्जेन के मन में अपने अन्य तीन पतियों से पत्नी का अधिकार मांगने की सोच भी नहीं पनपी थी । इतना ही नहीं, उस वक्त उसने यह भी नहीं सोचा था कि उसके आकर्षण और सहवास की परिणति ‘संतान’ को समाज में तुच्छ होकर जीना पड़ेगा और समाज की कुदृष्टि का शिकार होना पड़ेगा । उसने प्रेमिल मनस्थिति में पेमा के अनुरोध को इजाजत दी थी । उन लोगों ने ‘तिछयाङ्’ के बाद पूरी की जानेवाली शादी की मुख्य विधि ‘देमछयाङ’ को पूरा किये बिना समागम किया था जो उसकी इजाजत के बगैर नामुमकिन था । अगर ऐसा होता भी तो सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं होता ।
कभी–कभी तो जोर–जोर से चिल्लाकर इस समाज से पूछने का मन करता है,–‘ तिछयाङ् के बाद और शादी के पहले सहवास और शारीरिक संसर्ग करने की इजाजत देने वाला यह समाज उसी के परिणति के रूप में जन्मीं संतान को ऊँचा दर्जा क्यों नहीं दे सकता ? क्यों ‘थेम्बा’ कहकर तुच्छ समझता है ? इस समाज के पास उसकी ही दी गई इजाजत से जन्म लेनेवाली संतानो के साथ अन्याय करने का क्या अधिकार है ? मगर उसका मौन चीत्कारयुक्त प्रश्न मन में ही रह जाता है । वह अपने आप को उद्वेलित करने के अलावा कुछ नहीं कर पाती है । अपने इस प्रश्न को कोई अर्थ नहीं दे पाती है ।
बेचारा उस अबोध बालक को क्या पता कि उसकी माँ की शादी की विधियों में तिछ्याङ् के बाद पूरी की जानेवाली मुख्य विधि ‘देमछ्याङ’ पूरी होने से पहले ही वह जन्मा हुआ है और इसलिये वह समाज में दूसरे दर्जे का नागरिक है । यानि कि अवैधानिक संतान है । इसलिये वह समाज में तुच्छ समझा जाता है । अपनी माँ की अन्य संतानों की तुलना में भी तुच्छ ! ऐसी अवस्था में जब वह अबोध बालक छोटा–छोटा अबोध सवाल करता है तो उसकी माँ दर्द से भर जाती है । अन्दर ही अन्दर टूट जाती है । सोचती है,–इसमें इसका क्या दोष ? दोष तो मेरा है, इसके पिता का है । हम दोनों का जो हमने इसे समान मान्यता नहीं दिला सका । सच पूछिये तो यह हमारे समाज का दोष है !
उसे अच्छी तरह याद है–तिछ्याङ् के ठीक एक साल के बाद ‘थेम्बा’ के रूप में जन्मी उसकी पहली संतान के बाद ही उसकी ‘देमछ्याङ’ नामक विधि सम्पन्न हुई थी । ‘देमछ्याङ विधि मेंं उसके पिता के घर आनेवाले लोगों में दो लोग ‘याङजी’ और ‘बोकका’ आगे–आगे थे । याङ्जी और केकल कहलानेवाली शराब का मटका लिए हुए उन दो लोगों के पीछे दो लोग बाजा बजाने वाले थे और उनके पीछे महिलाओं और पुरुषों की लंबी कतार थी । देमछ्याङ का स्वागत अर्थात् सुरछ्याङ करने के लिए याङ्जेन की माँ और कुछ अन्य काकी और दादियों को शराब की हाँड़ी लेकर कुछ दूर आगे तक आना पड़ा था । उन लोगों ने धूप बत्ती जलाकर अपने साथ लाये गये ‘छ्याङ’ नामक शराब की बूँदे बारातियों के ऊपर छरका था । उसके बाद वे शराब पीने का दावत देते हुए उन्हें घर ले गये थे । घर में लेजाकर स्वागत उनके गले में गमछा पहना देने के बाद ‘देमछ्याङ’ अर्थात् शादी की विधि संपन्न हुई थी । याङ्जेन उस वक्त घर के एक कोने से ये सबकुछ देख रही थी । और उसे अच्छा भी लग रहा था ।
–‘अरे सखी याङ्जेन ! तुमको तो लग रहा होगा कि कब यहाँ से चली जाऊ ! कहीं आज ही भाग जाने को सोच तो नहीं रही ! कहीं ऐसा तो नहीं कि आज ही भाग जाओगी ! उसकी सहेलियों ने उसे परेशान कर रखा था । उसके मायके में तीन दिनों तक नाच–गान होता रहा ।
–‘ क्या उत्पात मचा रखी हो तुम लोग । तुम लोगों की भी बारी आएगी । क्यों बेचैन हुई जाती हो ? याङ्छेन अपनी सहेलियों को डाँटा जरूर था लेकिन मन ही मन वह रोमांचित हो गई थी । पेमा को देखने की इच्छा तीव्र हो चली थी । ‘तिछ्याङ’ के बाद ससुराल में ही आकर लंबे समय तक सहवास सुख देने वाला उसका पेमा ‘थेम्बा’ के रूप में पहली संतान के जन्म के बाद नहीं आया था । ‘देमछ्याङ’ में शादी करनेवाले लड़कों का आने का रिवाज नहीं था । भला वह भी क्यों आता !
‘देमछ्याङे’ की विधि संपन्न होने के बाद तीन दिनों तक भोज और नाच गान हुआ और उसके बाद दुलहन बिदा हो गई । याङ्जेन नया घर, नया परिवार और नया परिवेश में प्रवेश की । उसके अपने मायके का परिवार और परिवेश एकदम अलग था । उसके पिता के अन्य कोई भाई नहीं होने से उसकी माँ का एक ही पति था उसका पिता । कहने का मतलब यह है कि याङ्जेन और उसके भाई का एक ही पिता था । परिचय के क्रम में उसने जाना कि उसके मायके और ससुराल के परिवेश में काफी भिन्नताएँ हैं । दोनों परिवारों में कहीं कुछ नहीं मिलता । वैसे यह स्थिति उसके लिए अपरिचित नहीं थी । उसने अपने मायके में अन्य लोगों के घर–परिवार में इस तरह का वातावरण देखा था । संयोग ही कहना पड़ेगा कि उसने अपने घर–परिवार में ऐसा नजारा नहीं देखा । क्योंकि उसके बाप–दादाओं के एक ही पुत्र थे जिससे इस तरह का माहौल देखने को नहींं मिला । इधर उसका पति तो था ही । इसके अलावा उसकी सास के अन्य तीन लड़के और दो लड़कियाँ थीं । सास के पति अर्थात् उसके ससूर, वे भी दो थे । उसने परिचय के क्रम में यह भी जाना कि समाज के नियम और विधि के अनुसार सास–ससूर के अन्य तीनों लड़Þके उसके पति स्वतः हो गये । पेमा अपने अन्य पतियों को पहली बार देख रही थी । उसका दूसरा पति पेमा से उम्र में थोड़ा छोटा होने के बावजूद उसके ही तरह लक्का जवान और आकर्षक नजर आ रहा था । बाकी के दो तो बच्चे से नजर आ रहे थे । एक तो अभी दस का दिख रहा था और दूसरा शायद बारह वर्ष का किशोर था ! शायद वे अबोध किशोर नवआगन्तुक महिला की उपस्थिति को अजीब मान रहे होंगे । और यह नवआगन्तुक महिला उनकी भी पत्नी है, यह जानकर भी पत्नी का सही अर्थ समझ नहीं पा रहे होंगे । पत्नी भोग की कल्पना तो उनके जेहन में दूर–दूर तक नहीं होगी । उसकी सास ने अपनी उन चार संतानों को अपने पहले पति से पैदा की थी या बाकी के पतियों से, यह वही जानती थी । लेकिन प्रचनल यह था कि संतान चाहे जिससे जन्में, वह ज्येष्ठ की ही कहलाती थीं । इसलिए इसमें कोई बखेरा नहीं था, कोई लड़ाई नहीं थी । याङ्जेन को इस बात की फिक्र भी नहीं करना था और भेटघाट के क्रम में उसे इस बात से परिचित भी नहीं कराया गया ।
दिन बीतते चले गये । देमछ्याङ् की विधि संपन्न होने के बाद दो समधियों का मिलन होता है । पेछयाङ् की विधि संपन्न होने के बाद कुछ दिनों तक मायके में रही याङ्छेन ने उसके बाद अपने मायके की दहलीज पर पैर भी नहीं रखा है । पेछ्याङ के बाद अपने मायके से तिलक दहेज के साथ यहाँ आने के बाद उसे मायके जाने का वक्त ही नहीं मिला । सात–आठ लोगों का परिवार की देखभाल उसे ही करनी पड़ती है । उसका एक पति भोट, दूसरा खर्क और तीसरा गाँव से दूर खेतीपाती में होने के बावजूद घर में रहे सास–ससूर और खुद की दो–दो संतानों की देखभाल उसे ही करनी पड़ती है । घर के और अन्य इधर–उधर के कामों से उसे फुर्सत नहींं मिलती थी । वह चाहकर भी मायके जा नहींं सकी थी ।
आज वह अपने चार पतियों में से दूसरे के साथ बाँटी जा रही है । इससे वह काफी उदास है । उसे अच्छा नहीं लग रहा । सुबह ही उसने अपने ज्येष्ठ पति, जिसे वह वास्तव में अपना पति मानती थी, नमक का व्यापार करने के लिये बाहर भेजा है । तिछ्याङे से लेकर आज तक के प्रत्येक सहवासों में पेमा ने उसे शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से पूर्ण रूप से संतुष्टि दी है । उसका प्यार पाकर वह संतुष्ट थी, कोई शिकायत नहीं थी ।
–‘अपनी देखभाल अच्छी तरह करना पेमा ! सातू भूजा जो भी मिले, भरपेट खाना ! देखना, भूखे मत रहना ! याङ्जेन ने अपने पति पेमा को कहा था और विदा किया था ।
–‘ तुम बिल्कुल चिंता मत करो ! आज से तुम्हार ख्याल मेरा भाई साङ्ले करेगा । उसको ही पति मानना । आराम से रहना । मैं भी आ जाऊँगा ।’ पेमा ने भी उसे समझाते हुए कहा था ।
पेमा को विदा करने के बाद याङ्जेन सारा दिन अपने आप को घर के काम धंधों में व्यस्त रखा । मगर मन में शांति नहीं थी । रह–रहकर उसकी आँखों के सामने पेमा और साङ्े का चेहरा तैर जाता था और ये दो चेहरे एक आपस में घूलते नजर आते थे । एक से लगते थे ये दो चेहरे । फिर भी एक नहीं लग पाते । वैसे याङ्जेन ने अपने को अपने विभिन्न मर्दों के बीच बाँटने का मजबूत इरादा कर लिया था । मगर इसके बावजूद उसका इरादा कामयाब नहीं हो पा रहा था । यह कैसे संभव था कि एक रात पहले अपने एक पति की बाँहों में समाई और अपने को समर्पित की हुई नारी सुबह होते ही दूसरे पति की बाँहों में उसी सहजता और मुहब्बत से समा जाय । वह खुद से सवाल करती है और यह सोचने पर मजबूर हो जाती है कि आखिर उसके जेहन में भी उसके ससूर और गाँव के बहुपति वरण करने वाले अन्य लोगों की तरह सोच क्यों नहीं पनप पाती है । वह यह सोचने पर मजबूर हो जाती है कि यदि स्वेच्छा से बहुतों की बाँहों में समाना वेश्यावृत्ति है तो बहुतों की पत्नी होना क्या है ? उस और इस स्थिति में क्या तात्विक अन्तर है ? माना कि समाज ने इस बात की छूट दे रखी है, मान्यता दे रखी है । लेकिन क्या मैं कल से चार–चार पतियों के सहवास के बाद आज की तरह आप को सहज और सरल देख पाऊँगी ? आज का यह समाज इस तरफ क्यों नहीं देता है ? यह समाज यह क्यों नहीं सोचता कि पैतृक सम्पत्ति के बँटवारे को रोकने के लिये किया गया यह आविस्कार नारी–अस्मिता पर कितना बड़ा आघात पहुँचाता है ? क्या समाज की परंपराएँ और प्रचलन को भी तो समय के अनुसार परिवर्तन होना चाहिये ? हाँ, कल लड़कियों की संख्या कम थी और इस तरह की बहुपति–प्रथा कायक रखने की मजबूरी थी । मगर आज तो यह समस्या नहीं है । लड़के–लड़कियों की जनसंख्या समान ही है । इतना ही नहीं, अब तो पैतृक सम्पत्ति की स्थिति भी पहले की तरह नहीं है । तो फिर क्यों नहीं यह प्रचलन बदल रहा ?
याङ्जेन अपने ऊपर सवालों के हो रहे लगातार विस्फोटन से थर–थर काँपने लगती है और उसकी खामोशी ने उसे दबोच रखा है । उसके सवाल सवालों में सिमट कर रह जाते हैं ।
–‘याङ्जेन ! सोना नहीं है क्या ? घर का सारा काम–धंधा तो हो ही चुका होगा न !’ इच्छा न होने के बावजूद उसने आज घर में घी का दिया जलाया है । उसने भी पहले पति को व्यवसाय करने के लिए बाहर भेजने और दूसरे पति का स्वागत करने के क्रम में इस तरह घी का दिया जलाने के प्रचलन को स्वीकार किया है । लेकिन उसके मन में अब भी पेमा ही है । उसके दूसरे पति साङ्गे की कहीं कोई बात नहींं है । कहने का मतलब यह है कि याङ्जेन ने साङ्जे को मन से अपना पति नहीं माना है । अन्य दो नाबालकों की तो कोई बात ही नहींं है । उधर साङ्जे भी याङ्जेन के मन के महाभारत से पूरी तरह बेखर था । वह तो यही समझ रहा था कि याङ्जेन ने घी का दिया जलाकर एक की बिदाई और दूसरे का स्वागत करने की परंपरागत विधि को संपन्न करके अपनी स्वीकृति दे डाली है । वह तो यही समझ रहा था कि याङ्जेन ने अपने आपको पूरी तरह से समर्पित कर दिया है । याङ्जेन थी भी काफी खूबसूरत । साङ्जे उसकी खूबसूरती का दीवाना हो गया था । वह उस घड़ी का इन्तजार कर रहा था कि कब उसका बड़ा भाई कहीं जाये और याङ्जेन को वब भोगे । याङ्जेन को भोगने की कल्पना में ही उसने अपने दिन और रातें गुजारी थी ।
हालाँकि एकबार उसने यह सोचा भी था कि वह अपनी इच्छा के मुताबिक शादी करेगा और अपने बाप दादाओं की सम्पत्ति की लालच छोड़ देगा । आखिर कितनी है सम्पत्ति ! जीने के लिये कोई न कोई उपाय निकाल ही लेगा । कुछ न कुछ हो ही जायेगा । इतना ही तो है कि समाज के नियम के मुताबिक घर में रहकर एक को ही साझा पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करने पर पैतृक सम्पिित्त से हाथ धोना पड़ेगा । लेकिन इसके बदले अपनी इच्छा मुताबिक पत्नी की प्राप्ति और उसके साथ जीवन भर का आनंद का लाभ भी तो है । अपनी, केवल अपनी पत्नी और अपनी संतान और केवल अपना ही परिवार ! अर्थात् अपने अस्तित्व और अपनेपन के साथ जीने का मजा ! अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जिन्दगी बिताने का आनंद । कहीं से कोई खतरा नहीं । कहीं से कोई मलाल नहीं । लेकिन याङ्जेन की खूबसूरती और आकर्षण ने उसे ऐसा नहीं करने दिया था । याङ्जेन की खूबसूरती और आकर्षण मेंं ही रहने का कोई इरादा भी नहीं था । वह उसे एक याम तक भोगने के बाद किसी दूसरी औरत को अपनी पत्नी बनाकर और अपना धन सम्पत्ति छोड़कर अलग भी रह सकता था । पुरुषों मिली यह आजादी फिर घर की बड़ी बहू को नहीं थी । वे तो अपनी देह से लेकर मन को रोटी की तरह टूकड़ा–टूकड़ा करके बाँटने के लिये मजबूर थीं ।
‘......’ साङ्जे का ‘सोना नही है क्या’ के सवाल ने याङ्जेन को अंदर से हिलाकर रख दिया था । उसको साङ्जे की नये सहवास की व्यग्रता ने कंपित कर दिया था । उसके मन में ज्वार उठ गया था,–‘ क्या समझते हैं ये मरद अपने आपको ? क्या नारियाँ इनकी मदान्धता शमन करने और इनकी वासना के कब्र पर सो जानेवाली लाश हैं ? इनके बिस्तर की चादर हैं ? सवाल तो काफी विस्फोटक था । मगर वह कुछ नहीं बोल सकी । मन के ज्वारभाटा को मन में ही दबा रखा ।
अब तक कोई जवाब न पाकर साङ्जे उसके करीब आ गया है । कमरे में रोशनी फैली हुई है और अँगीठी के सामने याङ्जेन बैठी हुई है । परिवार के सारे लोग खर्क में हैं । अर्थात् वहाँ किसी भी भौतिक उपस्थिति नहीं है । किसी की भी जीवित अस्तित्व नहीं है । दीवारों से सटा तख्ता है । पूर्ववाले तख्ते पर मूर्तियाँ रखी हुई हैं । भगवान बुद्ध, अवलोकितेश्वर और तारा आदि की आकर्षक मूर्तियाँ ! एक दूसरे तख्ते पर याङ्जेन के द्वारा धो माँजकर रखे गये बर्तन हैं । वे बहुत ही सलीके और कलात्मक ढंग से रखे गये हैं । नीचे जमीन पर चट्टाई, गद्दा, भुवेदार बिस्तर बिछाई गई है । कमरे का वातावरण वैसे ही मादक, मोहक और आकर्षक है । वैसे वातावरण की यात्रियों में रोमांचकारी अनुभूति का होना अस्वाभाविक नहीं था । और साङ्जे तो ऐसे ही परिवेश, वातावरण और रोमांचकारी क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था । वैसी मानसिकता और वातावरणीय उत्प्रेरणा ने साङ्जे को व्यग्र बना दिया था, जो स्वाभाविक था । वह याङ्जे के करीब बैठ जाता है उसकी उँगलियाँ धीरे–धीरे याङ्जेन के अंगों के साथ खेलने लगती हैं । सिर,मुँह, गाल और होठों से गुजरते हुये उसकी उंगलियाँ उसके संवेदनशील अंगों का भी अतिक्रमण करने लगती हैं । साङ्जे की उंगलियाँ और उनकी गतिविधि एवं चेष्टाएँ उसे अच्छी नहीं लगतीं । किसी सर्पदंश के समान लगती हैं । ‘क्या कर रहे हैं ?’ जाइये, आप सो जाइये ! मुझे यहीं रहने दीजिये ! मैं आप सभी की बाँहों में भर के नहीं जी सकती । एक के अलावा दूसरे की पत्नी होकर जीने से बेहतर है मर जाना । मैं भी मर जाऊँगी ।’
याङ्जेन का अप्रत्याशित आक्रोश और विद्रोह देखकर साङ्गे कुछ बोल न सका । वह भौचका रह गया । सोचने लगा,–‘ चलो, कोई बात नहीं । आज पहला दिन है । पहली रात की असहजता है । कल तो ठीक ही हो ही जाएगा ।’ उधर याङ्जेन सो नहीं सकी । रात भर जगती रही । वह सोच रही थी,–‘ आज तो उसने अपनी अस्मिता की रक्षा कर ली है.... लेकिन .... कल ? उसके अंदर आशंका तो था लेकिन उसके साथ–साथ प्रवल आत्मविश्वास ं भी था–‘ऐसे रोटी की तरह बाँटकर मैं जिन्दा नहीं रह सकती ।’
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